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Thursday 16 March 2017

मनुष्य

ईश्वर रचित मनुष्य विचित्र प्राणी है।
दोगलेपन से भरी इसकी वाणी है॥

सीना तानकर सुनाता है लोगों को वो सुविचार।
पर उन सुविचारों से विपरीत उसका आचार॥

जो व्यक्ति गाता गुणगान राजा हरीशचंद्र के।
वही पाता अपने स्वप्न छल-कपट षडयंत्र से॥   

प्रतिदिन हो जाता है वो ईश्वर को नतमस्तक।
फिर बनता है उसी की संतानों का विध्वंसक॥ 

दिखाता है सबको वो ढेर सारा अनुराग।
किन्तु भीतर जलती उसके द्वेष की आग॥

करता जिनका विपदा में वो स्मरण।
करता उनके उपकारों का विस्मरण॥

जब तक उसको लाभ मिले, निःसंकोच करता कुकर्म।
जब उसको हानि मिलती, तब स्मरण वो करता धर्म॥

देता नेता जंता को विकास का आश्वासन।
पर सत्ता में आकर करता वो कुशासन॥ 

आजकल के योगी रहते मोह माया में लिप्त।
संन्यासियों की तृषणायें रह जाती हैं अतृप्त॥

बढ़-चढ़कर माँगता मनुष्य अपने अधिकार।
पर कर्त्तव्य पालन करने से करता वो इनकार॥

मनुष्य नहीं रखता अपने चरित्र की खोट का ज्ञान।
और लगाता समाज की दुर्दशा की कारणों पर ध्यान॥   

भौतिक स्तर पर अत्यंत प्रगति कर रही है मनुष्यता।
किन्तु चरित्र के सुधार की इसको है आवश्यकता॥                    

     
    

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